_राहुल अशोक संवाददाता_*
अब पत्रकारिता को *_”लोकतंत्र का चौथा स्तंभ”_* कहने से पहले थोड़ा सोचना चाहिए, क्योंकि इस देश में अगर कोई सच्चाई दिखाने की हिम्मत करे, तो उसे इनाम में मिलती है धमकियाँ, बदनामी और कभी-कभी… एक दो गोली। और सबसे मज़ेदार बात ये कि सब कुछ खुलेआम होता है, फिर भी सिस्टम आंखें मूंदे बैठा है – मानो कह रहा हो “देख तो रहा हूँ, लेकिन करूँ क्या?”
जी हाँ, मामला है उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का, जहां अम्बेडकर पत्र के संपादक आबिद अली ने लोकतंत्र का आईना दिखाने की कोशिश क्या की, खुद की ज़िंदगी ही असुरक्षित हो गई। क्या किया उन्होंने? बस इतना कि एक ‘प्रसिद्ध’ बिल्डर शिवम अग्रवाल उर्फ बब्बू द्वारा नियमों को ठेंगा दिखाते हुए किए जा रहे अवैध निर्माणों की खबर चला दी। अब भला ये भी कोई बात हुई? देश में सब चलता है, पर खबर नहीं चलनी चाहिए! और अगर चला दी तो भुगतो…
खबर का असर इतना हुआ कि लखनऊ विकास प्राधिकरण को खुद उठना पड़ा और उस ‘महान’ इमारत को सील करना पड़ा। लेकिन बब्बू भाई तो बब्बू हैं, सील-वील तो आम बात है। रसूख का रौब दिखाया और निर्माण फिर चालू! जैसे कुछ हुआ ही नहीं। अब जब संपादक महोदय ने दोबारा सच्चाई दिखाई, तो इस बार बब्बू जी का सब्र जवाब दे गया। व्हाट्सएप पर ज्ञानवर्धक संदेशों की जगह अब आरोपों की बौछार और *“देख लेने”* की धमकियाँ आने लगीं।
कौन कहता है कि पत्रकारिता में मज़ा नहीं है? हर दिन थ्रिल, हर खबर के बाद डर – और कभी-कभी तो पुलिस रिपोर्ट लिखवाने की नौबत भी आ जाती है। ये कोई स्क्रिप्टेड वेब सीरीज़ नहीं, असली कहानी है – जिसमें विलेन है, हीरो है, और साजिश भी।
सबसे रोचक तथ्य यह है कि जिन बिल्डर साहब की करतूतें उजागर हो रही हैं, उन्हें न केवल कुछ सफेदपोशों का आशीर्वाद प्राप्त है, बल्कि कुछ ऐसे ‘पत्रकार’ भी हैं जो खबर की आड़ में धंधा करते हैं। वही लोग जो शायद अगली प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनके साथ कुर्सियाँ साझा करेंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि, इन बिल्डर पर कार्रवाई होती है तो उन “सफेदपोशों और पत्रकारों” के नाम खुद ब खुद सामने आ जाएंगे, जो इनकी पैरवी में उतरेंगे।
अब सोचिए, जब पत्रकार ही खतरे में है तो खबर का क्या होगा? क्या सच्चाई सामने लाने की कीमत जान बन गई है? _*सवाल ये नहीं कि बिल्डर क्या कर सकता है, सवाल ये है कि सिस्टम क्या कर रहा है?*_ सवाल ये नहीं कि संपादक आबिद अली को धमकी दी गई, सवाल ये है कि क्या लोकतंत्र की आत्मा को ही गूंगा-बहरा बना दिया गया है?
कहते हैं कि डर के आगे जीत है, पर अब पत्रकारों के लिए डर के आगे सिर्फ एफआईआर, मुकदमे और कभी-कभी मोमबत्तियाँ ही बचती हैं। शायद अब वक्त आ गया है जब _*पत्रकारों को ‘बीमा’ नहीं, ‘बुलेट प्रूफ जैकेट’ लेनी चाहिए – क्योंकि खबरें लिखना अब सच में जानलेवा हो गया है।*_
पर क्या आबिद अली जैसे पत्रकार चुप बैठेंगे? शायद नहीं! और यही पत्रकारिता की असली ताकत है – जो डर के आगे भी सच की मशाल जलाए रखती है। बस, अब उम्मीद है कि इस मशाल को बुझाने से पहले सिस्टम जाग जाए!